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| देवीधुरा मंदिर |
उत्तराखंड के चंपावत जिले के देवीधुरा में हर वर्ष रक्षाबंधन (श्रावणी पूर्णिमा) पर मनाया जाने वाला बग्वाल मेला जिसे स्थानीय भाषा में “आषाड़ी कौतीक” भी कहते हैं एक अनूठा त्योहार है जो लोक आस्था, संस्कृति और साहस का अद्वितीय संगम प्रस्तुत करता है।
बग्वाल मेला की विशेषता और परंपरा
- 12 दिवसीय भव्य आयोजन
यह मेला 5 अगस्त से शुरू होता है और 16 अगस्त तक चलता है। 2025 में इसकी विधिवत शुरुआत जिलाधिकारी मनीष कुमार और पुलिस अधीक्षक अजय गणपति द्वारा की गई थी। - पत्थरों का पाषाण युद्ध
इस मेला की सबसे दिलचस्प परंपरा “बग्वाल” है एक प्रतीकात्मक पत्थर युद्ध जिसमें चार खाम गहरवाल, चम्याल, वालिक और लमगड़िया शामिल होते हैं।
यह युद्ध तब तक चलता है, जब तक पुजारी को यह आभास न हो जाए कि लगभग एक व्यक्ति के समतुल्य रक्त बह गया है, तब शंखनाद से इसे विराम दिया जाता है। - सांस्कृतिक संगम और नियमित पूजा-अर्चना
मेले की शुरुआत पूजन और सांगी (सामूहिक) अनुष्ठानों से होती है। इसमें मंदिर के गर्भगृह में देवी की मूर्ति की पूजा, व्रत और अनुशासन का पालन शामिल है। - लोक मान्यताएं और पौराणिक कथा
पारंपरिक कथा के अनुसार, पहले देवी को नरबलि अर्पित की जाती थी। एक वृद्धा ने देवी को प्रसन्न करने के लिए अपनी आराधना में ये प्रस्ताव दिया कि पत्थर युद्ध की प्रतीकात्मकता से ही एक समान रक्तदान हो जाए, और तब से यह परंपरा निभाई जा रही है। - आधुनिक व्यवस्था और प्रशासनिक पहल
प्रशासन की ओर से श्रद्धालुओं की सुरक्षा और सुविधा के लिए समुचित व्यवस्थाएँ की जाती हैं जैसे पार्किंग, जल व्यवस्था, रैन बसेरा, चिकित्सा शिविर, और जल निकासी की व्यवस्था।
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| देवीधुरा भगवाल मैदान |
संक्षेप में
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पहलू |
विवरण |
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आयोजनी तिथि |
5 अगस्त से 16 अगस्त तक (2025) |
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प्रमुख आकर्षण |
पाषाण युद्ध (बग्वाल) |
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खामों की संस्कृति |
चार पारंपरिक खामों का उल्हासपूर्ण सामूहिक सहयोग |
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धार्मिक महत्व |
देवी वाराही की पूजा, व्रत और परंपरागत पूजा-अर्चना |
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प्रशासनिक तैयारी |
सुरक्षा, स्वास्थ्य व आधारभूत सुविधा व्यवस्थाएं |
बग्वाल मेला केवल एक सामान्य मेला नहीं, बल्कि यह दरअसल देवीधुरा की लोक संस्कृति, धार्मिक समरसता और ऐतिहासिक परंपरा का सजीव उदाहरण है। यदि आप उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर में रुचि रखते हैं, तो देवीधुरा बग्वाल की यह कहानी निश्चित रूप से आत्मीय लगेगी!



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